देश की दुर्दशा का कौन ज़िम्मेदार मीडिया या चौकीदार! -
December 22, 2024

देश की दुर्दशा का कौन ज़िम्मेदार मीडिया या चौकीदार!

देश की दुर्दशा का कौन ज़िम्मेदार मीडिया या चौकीदार
 

देश की दुर्दशा का कौन ज़िम्मेदार मीडिया या चौकीदार आज की स्थिति से लगभग बच्चा-बच्चा वाक़िफ है कि कैसे किसी एक व्यक्ति को सर्वशक्तिमान घोषित किये जाने के लाखों-करोड़ों प्रयत्न किये जा रहे हैं।

दुःख की बात यह है कि, आम जनता को भी इसमें शामिल होने पर गर्व की अनुभूति हो रही है। वास्तविकता यह है कि उस समूह के भीतर राष्ट्रभक्ति और सम्प्रदाय-विद्रोह की ऐसी गलत परिभाषाएं भर दी गयीं है, कि उसे हर वह व्यक्ति देश का गद्दार नजर आने लगा है जो उसके आकाओं के मन मुताबिक कार्य करने को नापसंद कर रहा हो। निश्चित ही इस स्थिति को बनाने के लिये एक बेहतरीन विद्या अपनाई गयी होगी क्योंकि सामान्यतः किसी व्यक्ति का ब्रेन-वाश कर, अपने उपयोगी तत्वों/तर्कों को इन्सर्ट करना एक जादुई करामात है।

इसकी शुरुआत काफ़ी वक़्त पहले की जा चुकी थी। 90 के दशक में जब अन्य राजनैतिक दल बाबरी-मस्जिद मुद्दा को छूने मात्र से कतराते थे तब भाजपा ने बाहुल्यता का उचित आंकलन कर, अपना जो प्रथम दाव खेला वो उसकी दूरदर्शिता का बेहतरीन उदाहरण रहा है। इसके चलते उसे अपेक्षित रिस्पॉन्स भी देखने को मिलें है।

भारी संख्या में भीड़ उसके पक्ष में खड़ी होने लगी थी। क़रीबन 20 साल इस भीड़ को बढ़ाने और प्रशिक्षण प्रदान करने के बाद, भारतीय जनता पार्टी ने व्हाट्सएप्प यूनिवर्सिटी और कथित मीडियाकर्मी(वास्तविक चाटूकारों) की मदद से 2011 कॉमनवेल्थ से अपनी पृष्ठभूमि तैयार करना शुरू कर दी

मीडिया का खूब किया इस्तेमाल

कई मीडिया चैनलों द्वारा इस सोच के मास्टरमाइंड को भारत के मसीहा के रूप में दिखलाया गया। वैसे, इस विद्या के अनुसार किसी भी देश की जनता को अपने लिये क़ायल करना.. एक मामूली सी बात है क्योंकि 80 से 85% आम लोग उस श्रेणी के अंतर्गत आते हैं, जिन्हें हम भोलीभाली जनता के रूप में समझ सकते हैं।

इन्हें अधिक खंगालने की बजाय, परोसा हुआ ग्रहण करने की आदत होती है। ये लोग प्रायः धार्मिक और अधदेशभक्त प्रवत्ति के होते हैं, आधे इसलिये क्योंकि इनके लिये देशभक्ति के मूल कारकों का चुनाव किसी और के द्वारा किया जाता है। वो जैसा चाहे, इन्हें ढाल सकते हैं। चौकीदार ज़िम्मेदार या मीडिया खुले तौर पर कहा जाये तो इस प्रकार के समूहों के भीतर तार्किकता का अभाव और दूसरों पर विश्वास करने का अवगुण विद्यमान होता हैं।

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काँग्रेस जाल में ऐसे फसी

बकाया 15से20% प्रबुद्ध वर्ग के लोगों द्वारा समाज को जगाने का प्रयास समय समय पर किया जाता रहता है, लेकिन अल्पसंख्यक होने के नाते इनकी नापसन्दगी साफ जाहिर होती रहती है, इनकी आवाज को कुचल दिया जाता है।।
कहीं न कहीं काँग्रेस जाल में तब आ फसी, जब उसने 2012 में रामलीला मैदान में हुए जनांदोलन के प्रति अग्रेसिव होने का प्रयास किया.. क्योंकि आंदोलन तब जाकर आंदोलन में तब्दील होता है, जब उसे सुदृण जनसमर्थन मिलने लगता है… उससे पहले वो सिर्फ प्रयास की श्रेणी में गिना जाता है। भले ही तत्कालीन आंदोलन किसी सोची समझी रणनीति का शुरुआती पहलू रहा हो लेकिन उससे निपटने के लिये उस वक़्त की सत्तारूढ़ पार्टी कांग्रेस के पास आक्रामक होने के बजाय कई और विकल्प भी मौजूद थे।

भारतीय जनता पार्टी की समझदारी

भारतीय जनता पार्टी इस मामले में, मुझे ससमझदार नजर आती है.. वह भले ही किसी व्यक्ति, जाति, समुदाय या दलविशेष के लिये राजतन्त्र को बढ़ावा देती हो लेकिन जब बात एक वृहद समाज से सम्बंधित हो.. या कह सकते हैं कि जिस मुद्दे में सामाजिक हस्तक्षेप अधिक हो… उस स्थान पर प्रायः bjp बचाव की राजनीति में विश्वास रखती है..

उदाहरणार्थ जब NRC और CAA के माध्यम से किसी जातिविशेष को टारगेट किया जा रहा था, तब भाजपा ने शाहीनबाग को खाली कराने में साम,दाम,दण्ड और भेद की नीति अपनाई थी. वहीं जब बात किसान कानूनों की आई, तो वहाँ bjp बचाव की मुद्रा में ही नजर आई है. चौकीदार ज़िम्मेदार या मीडिया जब किसनान्दोलन अपने चरम की प्राप्ति की ओर अग्रसर था, और देश की सबसे बड़ी विधायिका up विधानसभा के चुनाव सिर पर थे…

तब बेजिझक होकर, माफी के साथ देश के प्रधानमंत्री ने तीनों काले कानून वापस ले लिये थे।
सरकार का भी शुरू से लेकर अंत तक यही प्रयास रहा है कि खुले तौर पर किसानों को हानि न पहुंचाई जाये, भले ही अंदरूनी जानकार कहानी को कुछ और बतलायें।

2012 में आंदोलननायकों के रूप में बाबारामदेव और अन्नाहजारे जैसे लोग अग्रणी थे।

प्रायोजित तरीकों से उन्होंने समाज के भीतर खुद को बेसहारा और तत्कालीन सरकार को जनता का दुश्मन साबित करने का सफल प्रयास किया था, उस प्रकार के तत्वों ने ही ऐसे मजबूत भाजपा-युग की नींव रखी।
Bjp को इसका गहन फायदा पहुंचा, 2014 लोकसभा चुनाव में उसे प्रचंड बहुमत के साथ जीत मिली.. कांग्रेस पार्टी जो कि 2009 आमजनता चुनाव की सबसे बड़ी पार्टी थी, महज़ 44 सीटों पर सिमट गयी।


यहाँ से शुरू हुआ असली मोदीराज… इसके पहले नेहरू का लोकतंत्र जीवित था, और अन्य राष्ट्र भी इसकी तारीफ किया करते थे, विपक्षी दलों या नेताओं को सम्मान सहित अहम मुद्दों की बातचीत के लिये शामिल भी किया जाता था और किसी नीतिगत-अवरोध के चलते भारतीय मीडिया सत्तादल के खिलाफ आग-बबूला नजर आया करती थी।
2014 के बाद से शुरू हुआ राजतंत्र का पहला अध्याय, जिसमें नव निर्वाचित सरकार ने देश के लगभग सभी मीडिया संगठनों को आम खिलाकर, पैसा थमाकर, डरा धमका कर अपने घर का टॉमी बनाया था।

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वे लोग या तो आज जेल की सलाखों के पीछे हैं अथवा इस धरा से लगभग गायब हो चुके हैं।

वे लोग या तो आज जेल की सलाखों के पीछे हैं अथवा इस धरा से लगभग गायब हो चुके हैं।
मैं यह नहीं कह रहा हूँ कि यह पहली बार था कि भारतीय मीडिया को दूषित करने के मंसूबा उपजा.. लेकिन इससे पहले ऐसी भारी सफलता अन्य किसी राजनैतिक दलों के हांथ नहीं लगी थी।

इस मीडिया के बलबूते ही, सरकार दिन ब दिन मजबूत होती चली गयी और विपक्ष कमजोर चौकीदार ज़िम्मेदार या मीडिया
असल मायनो में देश के संविधान की सबसे बड़ी तौहीन, हमारे मीडिया-ऑर्गनाइजेशन्स की ही देन है।
धर्म निरपेक्ष राष्ट्र को हिन्दू राष्ट्र में परिवर्तित करने का जो अथक प्रयास भारतीय मीडिया संस्थानो द्वारा किया गया है.. वाक़ई शर्मसार करता है।

मीडिया ने घोला ज़हर

देश की हवा में हिन्दू-मुस्लिम घोलने का दुष्प्रभाव, मैं चाहूंगा कि पूरे देश के बजाय सिर्फ इन मीडिया-टॉमियों को ही भुगतने पड़े। इससे सबसे बड़ा फायदा हुआ वर्तमान सत्तापक्ष को, क्योंकि आमजनता का वह 80 से 85% हिस्सा जो खंगालने की बजाय सिर्फ परोसा हुआ खाना ही जानता है। वह खुद को धीरे धीरे विपरीत समुदाय का दुश्मन मानने लगा…

इसमें भाजपा का नुकसान भी निहित है लेकिन नुकसान तब कहलाता जब फायदे से अधिक होता चौकीदार ज़िम्मेदार या मीडिया मुस्लिम पक्ष बाबरी-कांड से ही bjp से मनमुटाव मानता चला आ रहा था, अतः इस पैंतरे के बाद और अधिक खिन्न हो गया लेकिन जो हिन्दू वोटबैंकथा वो एकतरफा भाजपा की झोली में गिर गया..

इसका असर 2019 के आम-चुनाव में देखने को मिला जब bjp ने पुनः सारे रिकॉर्ड तोड़ते हुए प्रचंड बहुमत के साथ अपना परचम लहराया।

बात अगर up विधानसभा की, की जाये तब भी यही फॉर्मूला फिट होता नजर आता है।

012 विधानसभा में अपना जलवा बिखेरने वाली समाजवादी पार्टी कैसे 2017 के चुनाव में इस कदर आउट ऑफ फॉर्म हुई कि 224 सीटों से गिरकर 47 सीट पर आ लटकी, इसका उत्तर भी उन 15 से 20 प्रतिशत तार्किक आमजनों के पास है जो इस लेख को बड़े ध्यान से पढ़ते चले आ रहे हैं।

यद्यपि इस बात में कोई शंका नहीं कि न केवल प्रदेश बल्कि देशभर की जनता प्रधानमंत्री के जादुई वक्तव्यों में मन्त्रमुग्ध हो चुकी है.. उसे मोदी के अलावा किसी बेहतर विकल्प की न तलाश है और न ही ख्वाहिश! लेकिन विपक्षी दलों को bjp से जीतने/ हार न मानने का जज्बा लेना चाहिये कि कैसे उसने करीब 2 दशक तक अदृश्य प्रयास किया और कैसे 2 वर्षों में उसे जगज़ाहिर कर दिया और कैसे आज देश की सर्वशक्तिशाली पार्टी बनकर बैठी है?

भाजपा के लिये, 2012 के वक़्त से पहले तक शुरुआत करने का विचार तक मुमकिन नहीं था, उसने कैसे आपदा में अवसर ढूंढते हुए शुरुआत की, कटु-नीति का बेहतरीन उदाहरण है।
आज विपक्ष के पास कई सारे मुद्दे हैं जिनके आधार पर केंद्र-सरकार को घेरा जा सकता है।

लेकिन असम्भव नहीं…

मंहगाई, शिक्षा, स्वास्थ्य, सम्प्रदायिकता, अमीरी-गरीबी का अंतराल, किसानों की बेपरवाही, बढ़ते कोविड प्रसार के बावजूद चुनावी जिद्दोजहद, बेरोजगारी और नौकरियों का अभाव जैसे अनगिनत मुद्दे हैं जिनको लेकर सरकार से प्रश्न पूंछे जा सकते हैं, उनकी खामियां गिनायी जा सकती है लेकिन जरूरत है सिर्फ और सिर्फ कुशल राज-नेतृत्व की!अन्यथा पिछले चुनावों की तरह यह चुनाव भी गुजर जायेगा, bjp पुनः अपने ही किसी रिकॉर्ड को तोड़ती हुई सत्ता पर काबिज़ होगी और विपक्षी दलों के पास होगा दुःख, संवेदना, अगली पंचवर्षीय तक का समय और एक झुनझुना

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